
एक पहाड़ी जो इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं की गवाह बनी
17 नवंबर 1913, इतिहास का वो दिन जब ब्रिटिश शासन की सेना ने निहत्थे आदिवासियों पर अचानक गोलियां चला दीं। मानगढ़ की पहाड़ी देखते ही देखते निर्दोष लोगों के खून से लाल हो उठी। कई इतिहासकारों और स्थानीय लोगों का मानना है कि यह घटना जलियांवाला बाग से भी कहीं अधिक वीभत्स और बर्बर थी। दुखद यह है कि इस भीषण नरसंहार को वह मान्यता कभी नहीं मिल सकी, जिसकी यह वास्तव में हकदार थी।
प्रकृति की गोद में बसा मानगढ़ धाम
गहरे जंगलों से घिरी, लगभग 800 मीटर ऊंची एक सुंदर पहाड़ी, जिसे मानगढ़ धाम कहा जाता है, गुजरात और राजस्थान की सीमा पर स्थित है। इस पवित्र स्थान पर एक धूणी और गोविंद गुरु की प्रतिमा स्थापित है, जो इस क्षेत्र की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक पहचान को जीवित रखे हुए है।
गोविंद गुरु: जन-जागरण से जन-आंदोलन तक
20 दिसंबर 1858, डूंगरपुर जिले में बंजारा समुदाय में जन्मे गोविंद गुरु ने समाज में सुधार लाने का बीड़ा उठाया। 1903 में उन्होंने एक सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था – विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और शिक्षा के माध्यम से आदिवासी समाज को सशक्त बनाना।

जल्द ही उनका यह प्रयास एक जन आंदोलन बन गया। हजारों आदिवासी उनके विचारों से जुड़ गए और अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ संगठित हो गए। यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के लिए चुनौती बनता जा रहा था, जिससे डरकर उन्होंने इसे कुचलने की योजना बनाई।
17 नवंबर 1913: मार्गशीर्ष पूर्णिमा और बर्बरता का दिन
मार्गशीर्ष पूर्णिमा के पावन दिन, गोविंद गुरु का जन्मदिन मनाने के लिए हजारों की संख्या में आदिवासी मानगढ़ धाम पर एकत्रित हुए। यह सूचना पहले ही ब्रिटिश हुकूमत को मिल चुकी थी। अंग्रेजों ने खेरवाड़ा से ब्रिटिश बटालियन और दाहोद से सैन्य टुकड़ी बुलाकर पहाड़ियों को घेर लिया।
रात के अंधेरे में मशीनगनों और तोपों को खच्चरों से लादकर पास की समांतर पहाड़ी पर तैनात किया गया। मेजर हैमिल्टन और उनके तीन अफसरों ने पूरी योजना तैयार कर ली। सुबह होते ही कर्नल शटन के आदेश पर आदिवासियों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो गई।
खून से सना इतिहास, जिसे भुला दिया गया
कुछ ही पलों में पूरा इलाका रक्तरंजित हो गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, करीब 1500 आदिवासी इस गोलीबारी में मारे गए। इस वीभत्स हमले के बाद गोविंद गुरु और उनके एक साथी को पकड़ कर अहमदाबाद और संतरामपुर की जेलों में भेजा गया।
उन्हें पहले फांसी की सजा सुनाई गई, जिसे बाद में 10 साल के कारावास में बदल दिया गया। 12 जुलाई 1923 को उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे बांसवाड़ा, डूंगरपुर और संतरामपुर रियासत में प्रवेश नहीं करेंगे।
जेल से रिहाई और अंतिम सांस तक समाज सेवा
रिहाई के बाद भी गोविंद गुरु ने समाज सेवा जारी रखी। उन्होंने लोगों को शिक्षा, आत्मनिर्भरता और धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। 30 अक्टूबर 1931 को पंचमहल जिले के कगबोई गांव में उनका निधन हो गया।
अब मिला है नया सम्मान – बन सकता है राष्ट्रीय स्मारक
इस भीषण नरसंहार के कई वर्षों बाद तक मानगढ़ धाम को न पहचान मिली, न ही वह सम्मान जो उसे मिलना चाहिए था। 27 मई 1999 को राजस्थान सरकार ने यहां एक शहीद स्मारक का निर्माण कराया।
🔍 निष्कर्ष:
मानगढ़ नरसंहार केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि यह एक ऐसा अध्याय है जिसे जानना, समझना और स्मरण करना हमारा कर्तव्य है। गोविंद गुरु और हजारों आदिवासी वीरों के बलिदान को इतिहास में वह स्थान अवश्य मिलना चाहिए जिसके वे वास्तविक हकदार हैं।