
महावीर स्वामी का प्रेरणादायक जीवन
जैन धर्म के 24वें तीर्थांकर महावीर स्वामी अहिंसा के साक्षात प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से परिपूर्ण था। जिस समय समाज में हिंसा, पशुबलि और जाति-पाँति का भेदभाव चरम पर था, उसी युग में महावीर स्वामी का जन्म हुआ।
ईसा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली के गणराज्य कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहाँ एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ, जिसे वर्धमान नाम दिया गया।
वर्धमान बचपन से ही बुद्धिमान और गंभीर स्वभाव के थे। आठ वर्ष की उम्र में जब उन्हें गुरुकुल भेजा गया, तो शिक्षक ने उन्हें कुछ शब्द कंठस्थ करने को दिए। वर्धमान ने शांतिपूर्वक सुना और थोड़ी देर बाद उन सभी शब्दों को बिना किसी कठिनाई के दोहरा दिया। यह देख शिक्षक अचंभित रह गए।
उसी समय एक वृद्ध ब्राह्मण गुरुकुल में आए और उन्होंने शिक्षक से व्याकरण से संबंधित जटिल प्रश्न पूछे, जिनका उत्तर शिक्षक नहीं दे पाए। ब्राह्मण ने शिक्षक से वर्धमान से प्रश्न पूछने की अनुमति मांगी। वर्धमान ने सहजता से सभी उत्तर दिए। ब्राह्मण ने कहा कि यह बालक जन्म से ज्ञानी है और यह भविष्य में तीर्थांकर बनेगा।
शिक्षक वर्धमान को उनके पिता के पास लेकर गए और कहा कि वर्धमान को पारंपरिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह पहले से ही ज्ञानवान है।
वर्धमान जैसे-जैसे बड़े हुए, उनका ज्ञान और गहराता गया। एक दिन वे बगीचे में पेड़ों को देख रहे थे। तभी उनके भाई नंदीवर्धन आए। वर्धमान ने उनसे पूछा, “जब पेड़ एक ही जड़ से पोषण लेते हैं तो कुछ शाखाएँ मोटी, कुछ पतली, कुछ ऊपर और कुछ नीचे की ओर क्यों जाती हैं?”
नंदीवर्धन के उत्तर न दे पाने पर वर्धमान ने बताया कि जो अधिक संग्रह करते हैं वे भारी होकर नीचे झुकते हैं और जो कम संग्रह करते हैं वे हल्के होकर ऊपर उठते हैं। यही सिद्धांत अपरिग्रह को दर्शाता है।
28 वर्ष की उम्र में माता-पिता के निधन के बाद वर्धमान के मन में वैराग्य जागा, लेकिन बड़े भाई के आग्रह पर वे दो वर्षों तक घर पर रहे। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा ली और समण बन गए।
इन्हीं वर्धमान को बाद में महावीर स्वामी के नाम से जाना गया।
दीक्षा के बाद की घटना
दीक्षा के प्रथम वर्ष में महावीर स्वामी मोरक गांव से गुजर रहे थे। वहाँ एक आश्रम के मालिक, जो राजा सिद्धार्थ के मित्र थे, ने उन्हें चातुर्मास के लिए आमंत्रित किया जिसे महावीर स्वामी ने स्वीकार किया।
महावीर स्वामी अधिकतर ध्यान में रहते थे। उनकी झोंपड़ी की सूखी घास गायें और जानवर खा जाते थे, जिससे अन्य संन्यासियों ने आश्रम प्रमुख से शिकायत की। जब आश्रम प्रमुख ने महावीर से कहा कि पक्षी भी अपने घोंसले की रक्षा करते हैं, तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया — बल्कि चुपचाप आश्रम छोड़ दिया।
इसके बाद उन्होंने पांच महाव्रतों को अपनाया, किसी भी स्थान पर स्थायी रूप से न रहने की प्रतिज्ञा ली, और परिग्रह त्याग कर नग्न जीवन व्यतीत करने लगे।
ग्वाले की गायें और दिव्य हस्तक्षेप
एक संध्या की बात है, भगवान महावीर स्वामी एक वृक्ष के नीचे शांत और स्थिर मुद्रा में ध्यानमग्न खड़े थे। तभी एक ग्वाला (चरवाहा) कुछ गायों के साथ वहाँ पहुँचा। उसने महावीर स्वामी से कहा,
“हे मुनि! मैं गाँव में दूध बेचने जा रहा हूँ। कृपया तब तक मेरी गायों का ध्यान रखें।”
इतना कहकर वह उत्तर सुने बिना वहाँ से चला गया।
कुछ समय बाद जब ग्वाला लौटा, तो उसने देखा कि महावीर स्वामी अब भी उसी स्थिति में ध्यानस्थ खड़े हैं — मगर उसकी गायें वहाँ नहीं थीं।
गायों के ना होने पर ग्वाला बेहद क्रोधित हो गया और उसने महावीर स्वामी पर आरोप लगाया कि उन्होंने उसकी गायें छिपा दी हैं। गुस्से में वह महावीर स्वामी पर प्रहार करने को आगे बढ़ा।
उसी क्षण एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए और उन्होंने ग्वाले को रोका। उन्होंने कहा:
“अज्ञानी व्यक्ति! तुम बिना उत्तर सुने ही अपनी गायें इनके हवाले कर के चले गए थे। और अब जब वापस लौटे हो तो इन्हें दोष दे रहे हो? ये वही गायें हैं जो अब खुद लौटकर इनके पास आ बैठी हैं।
ये कोई सामान्य तपस्वी नहीं हैं, ये एक भावी तीर्थांकर हैं। इन पर हाथ उठाने का प्रयास तुम्हारे जीवन के लिए घातक हो सकता था।”
यह सुनकर ग्वाले को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह तुरंत भगवान महावीर स्वामी के चरणों में गिर पड़ा और उनसे क्षमायाचना करने लगा।

केवलज्ञान की प्राप्ति
महावीर स्वामी ने 12 वर्षों तक मौन और तप का जीवन जिया। अंततः ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अब वे केवलिन कहलाए।
उन्होंने अर्धमगधी भाषा में उपदेश दिए ताकि सामान्य लोग भी उन्हें समझ सकें। उनके संदेश – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह – चारों दिशाओं में फैलने लगे।
राजाओं पर प्रभाव और निर्वाण
उनकी शिक्षाओं से कई राजा प्रभावित हुए। बिम्बिसार और चंद्रगुप्त मौर्य जैसे सम्राट जैन धर्म के अनुयायी बने। 72 वर्ष की उम्र में उन्होंने पावापुरी (बिहार) में कार्तिक अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इस दिन को दीपावली के रूप में मनाया जाता है।
🙏 धन्य हैं ऐसे महापुरुष जिन्होंने त्याग और ज्ञान से भारत की संस्कृति को जीवंत किया। उनके बताए मार्ग आज भी हमारे जीवन का पथप्रदर्शक हैं।
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