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हिन्दू धर्म में जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक संस्कारों का विशेष महत्व होता है। इनमें अंतिम संस्कार यानी मृत्यु के बाद की प्रक्रिया भी प्रमुख है। आमतौर पर जहां लोगों का दाह संस्कार किया जाता है, वहीं नागा साधु की अंत्येष्टि की विधि अलग और गूढ़ होती है।

नागा साधु: जो मृत्यु से पहले ही मोक्ष का मार्ग चुन लेते हैं

नागा साधु अपने जीवन में ही आत्मसमर्पण की चरम अवस्था तक पहुंच चुके होते हैं। वे स्वयं ही पिंडदान और तर्पण जैसे कर्मों को पहले ही पूरा कर लेते हैं। यही कारण है कि उनकी मृत्यु के बाद न तो दाह संस्कार होता है और न ही चिता को अग्नि दी जाती है।

समाधि: जल या भू-समाधि का प्रावधान

जूना अखाड़ा के वरिष्ठ साधु अखंडानंद महाराज के अनुसार, नागा साधुओं को मृत्यु के बाद समाधि दी जाती है — या तो जल समाधि (पवित्र नदी में) या भू-समाधि (धरती में बैठाकर)। पहले जल समाधि प्रचलित थी, लेकिन आजकल पर्यावरण संरक्षण के कारण भू-समाधि का अधिक प्रयोग होता है। इसमें नागा साधु को सिद्ध योग मुद्रा में बैठाकर समाधि दी जाती है।

क्यों नहीं होता दाह संस्कार?

नागा साधु अग्नि में समर्पण की बजाय समाधि की ओर जाते हैं क्योंकि वे जीवनकाल में ही अपने शरीर, मन और आत्मा को परमात्मा को समर्पित कर चुके होते हैं। इससे वे पंच महाभूत — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — में शांतिपूर्वक विलीन हो जाते हैं।

सम्मान के साथ अंतिम विदाई

नागा साधु की मृत्यु के बाद उनके शरीर पर भगवा वस्त्र डाला जाता है और भस्म लगाया जाता है, जो उनकी तपस्या और साधना का प्रतीक होता है। समाधि स्थल पर एक सनातनी प्रतीक बनाया जाता है ताकि उसकी पवित्रता बनी रहे।

अंतिम इच्छा का भी होता है सम्मान

यदि कोई नागा साधु मृत्यु से पहले जल समाधि की इच्छा प्रकट करते हैं, तो उन्हें किसी पवित्र नदी में विधिपूर्वक समर्पित किया जाता है। कभी-कभी अखाड़े की परंपराओं के अनुसार भी अंतिम संस्कार की विधि निर्धारित होती है।


निष्कर्ष

नागा साधुओं की अंत्येष्टि की परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति और सनातन परंपरा का जीवंत उदाहरण है। यह हमें यह सिखाती है कि शरीर केवल पंचतत्वों का मेल है और मृत्यु भी एक चेतना की पूर्णता है।


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