
तुलना का अदृश्य जाल
ज़रा सोचिए…
आपका दिन अच्छा बीत रहा है, मन हल्का और प्रसन्न है। लेकिन अचानक, मोबाइल स्क्रीन पर एक तस्वीर चमकती है — किसी का परिवार समुद्र किनारे छुट्टियों का आनंद ले रहा है, कोई अपने नए घर की चाबी दिखा रहा है, तो कोई चमचमाती कार में बैठा मुस्कुरा रहा है।
मन में हल्की-सी खटास घुलती है — क्या मैं पीछे रह गया हूँ?
ये वही भाव है, जो हमारी शांति को धीरे-धीरे निगल जाता है — तुलना का भाव।
ऐसा सिर्फ आज के दौर में नहीं होता। महाभारत के कुरुक्षेत्र में भी जब अर्जुन ने खुद को दूसरों से आंका, तो उनका मन संदेह और मोह से भर गया। धनुष हाथ में था, लेकिन आत्मा थक चुकी थी। तब श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा —
“अर्जुन, अपने हृदय को खाली करो। जिस राह पर तुम चल रहे हो, वह तुम्हारी है। किसी और की राह पर चलने से मंज़िल नहीं, केवल भ्रम मिलेगा।”
1. अपने कर्म पर एकाग्र रहो, अर्जुन
श्लोक – भगवद गीता (अध्याय 3, श्लोक 35)
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।”
अर्थ: अपने कर्तव्य का पालन करना, भले उसमें कमी हो, दूसरों के कर्तव्य को अपनाने से बेहतर है।
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“देखो अर्जुन, हर आत्मा का मार्ग अलग है। तुम्हारा धर्म, तुम्हारे कर्म, तुम्हारे अनुभव — ये सब तुम्हें गढ़ते हैं। अगर तुम किसी और के धर्म को अपनाओगे, तो भले ही सोने का ताज मिल जाए, मन खाली रहेगा।”
इसलिए जब हम अपनी यात्रा पर केंद्रित रहते हैं, तो दूसरों की उपलब्धियां हमें ईर्ष्या नहीं, प्रेरणा देती हैं।
2. परिणाम से अधिक प्रयास का आनंद लो
श्लोक – भगवद गीता (अध्याय 2, श्लोक 47)
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं। यह मत देखो कि किसी को क्या मिला, किसने कितना कमाया, किसे कितनी प्रसिद्धि मिली। अगर तुम्हारा प्रयास सच्चा है, तो तुम पहले ही विजयी हो।”
हम अक्सर परिणामों की तुलना करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि वे कई परिस्थितियों पर निर्भर हैं। सच्चा सुख इस बात में है कि हम अपने पूरे दिल से काम करें और उससे सीखें।
3. अपने स्वभाव को अपनाओ
गीता हमें याद दिलाती है — हर व्यक्ति सत्त्व, रजस और तमस के अनूठे मिश्रण से कार्य करता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“अर्जुन, नदी से पूछो तो वह बहने में आनंद पाती है, पर्वत से पूछो तो वह अचल खड़े रहने में। कोई और जैसा बनने की कोशिश मत करो। अपने गुणों को पहचानो और संजोओ।”
जब हम अपने स्वभाव को स्वीकारते हैं, तो तुलना का कोई कारण ही नहीं बचता।
4. मन पर विजय – असली युद्ध
श्लोक – भगवद गीता (अध्याय 6, श्लोक 6)
“बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।”
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“जिसने अपने मन को जीत लिया, वह स्वयं का मित्र है। जिसने हार मान ली, वही मन उसका शत्रु बन जाता है।”
तुलना मन की चंचलता है। ध्यान, आत्म-चिंतन और सतर्क विचारों से हम मन को स्थिर कर सकते हैं। जब आत्म-सम्मान भीतर से आता है, तो कोई बाहरी सफलता हमें डिगा नहीं सकती।
5. सबमें परमात्मा का अंश देखो
जब हम यह समझ जाते हैं कि हर प्राणी में उसी परम सत्ता का अंश है, तो “ज्यादा-कम” और “अच्छा-बुरा” जैसी धारणाएँ मिटने लगती हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“अर्जुन, जिस दिन तुम हर किसी में मुझे देखोगे, उस दिन तुलना की दीवार गिर जाएगी।”
6. अस्थायी को छोड़, शाश्वत को थामो
श्रीकृष्ण याद दिलाते हैं — सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय – सब क्षणभंगुर हैं।
“अर्जुन, तेरा असली धन तेरी करुणा, साहस और ज्ञान है। इन्हें कोई समय, कोई युद्ध, कोई परिस्थिति छीन नहीं सकती।”
7. मुकाबला केवल अपने बीते हुए स्वरूप से
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“आज का तुम कल के तुमसे बेहतर बनो, यही सच्चा युद्ध है।”
जब हम खुद को रोज़ थोड़ा-थोड़ा बेहतर बनाने लगते हैं, तो ईर्ष्या, असुरक्षा और तुलना की जड़ें अपने आप सूखने लगती हैं।
निष्कर्ष
तुलना का भाव एक अदृश्य जाल है, लेकिन श्रीमद भगवद गीता हमें सिखाती है कि अपने धर्म का पालन, मन की स्थिरता और आत्म-स्वीकृति हमें सच्चा आनंद देती है।
जीवन की असली जीत किसी और को पीछे छोड़ना नहीं, बल्कि खुद के भीतर के अंधकार को हराना है।
Q1: तुलना का भाव क्यों हानिकारक है?
तुलना का भाव हमारे मन को अस्थिर करता है और आत्म-संतोष को खत्म कर देता है।
Q2: तुलना से छुटकारा पाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण क्या कहते हैं?
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म और कर्म पर ध्यान दो, फल पर नहीं।
Q3: क्या दूसरों की सफलता से प्रेरणा लेनी चाहिए?
हाँ, लेकिन तुलना नहीं करनी चाहिए। प्रेरणा से विकास होता है, तुलना से असंतोष।